चार रुपये की ज़िंदगी

किसी की ज़िंदगी कितने रुपये में तौली जा सकती है? लाखों में? करोडों में? किसी की सम्पत्ति देखकर शायद कोइ मूल्य बताये। कोइ दुर्घटना में मारा जाये, और् उसके परिवार को कुछ मुआव्ज़ा दिया जाये, वह क्या उसके जीवन का मूल्य बन जाता है?

मैं कहूं कि मेरी सांसों का मोल केवल चार रुपये है। लोग मानते हैं कि जीवन अनमोल है, जो जाये तो किसी भी कीमत पर वापस ना आये। पर मेरे लिए, मेरी सांसों को मेरे शरीर से जोडे रखने के लिए बस चार रुपये ही काफ़ी हैं

मुझे दमा की बीमारी है। ऐसी बीमारी जो मेरे दुश्मनों को न लगे। जब ठंड बढ जाए या कोइ तेज़ बू मेरे नाक में लगे, मेरे फेफडे हडताल पर उतर आते हैं। उनकी नलियां जकड लेती हैं और हवा का बहाव धीमा हो जाता है। सांसें फूट फूट कर लेनी पडती हैं, और छाती मैं ऐसा दर्द होता है कि सहा न जाए।

किसी ने कहा है कि भगत सिंह ने दर्द से दोस्ती कर ली थी, इसलिए अंग्रेज़ों की मार से न टूटे। पर दर्द किसी क दोस्त नहीं होता। हर इन्सान ने दर्द महसूस किया है। जब दर्द होता है तब मन में एक ही इच्छ होती है - कि वह चला जाये। किसी भी तरह चला जाए - या मौत से या दवा से। दर्द से दोस्ती कोइ नहीं कर सकता।

दमे की दवा चार रुपये में बिकती है - चार रुपये की दस गोलियां। जैसे ही सांसें फूलने लगें, एक गोली निगल ली। पलभर में नलियां खुल जाती हैं और सांसों में फिर आरम आता है। रुकी हुई ज़िंदगी फिर चल पडती है।

मेरे खुदा का दिया हुआ सब कुछ इस दमे के अधीन है। न मैं चैन से सोच सकता हूं, न लिख सकता हूं, न हंस सकता हूं, न रो सकता हूं - जब दमा होती है तो बस उसके बन्द होने कि भीख मांगत हूं। पीडा और चैन का फासल यह चार रुपये पूर करवाते हैं। तभी मैं अपन जीवन जी सकता हूं।

मेरे इस धर्ती पर जीने से जो भी अंजाम होग, इस चार रुपये के दवा क अहसान रहेगा। यही है मेरी औकात - मेरे खुदा की बरकत, और चार रुपये की ज़िंदगी।

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