एक गुफ़तगू

नज़्म उलझी हुई है सीने में,
मिसरे अटके हुए हैं होंठों में,
उड़ते फिरते हैं तितलियों की,
लफ्ज़ कागज़ बैठते ही नहीं हैं,
कबसे बैठा है 'तन्हा', सादे
कागज़ पर लिखके नाम तेरा,
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है,
इससे बेहतर कोई नज़्म क्या होगा?
- आशिक़ा 'तन्हा'


तुम क़ाफ़िया, तुम रदीफ़, तुम बहर हो, यह ग़ज़ल मेरा तुम पर क़ुरबान,
अल्फ़ाज़ न पिरोने का डर इतना, तुमसे मिलने से मुकर जाता हूँ|
- 'ख़ाना बदोश'

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