उस्ताद और शागिर्द

यह शागिर्द ने साज़ छेड़ा:

ए महबूब यह क्या इनसाफ़ तूम्हारा,
ज़रा सी गुस्ताख़ी की सज़ा
इस वफ़ा-ए-ज़िन्दगी को मिली|

- रामेश

यह उस्ताद ने अलाप, जोड़, झाला पेश किया:

जानेमन, ज़रा सी ग़ाफ़िलियत के आवेज़ में
वफ़ा-ए-ज़ीस्त का खात्मा,
वाक'ई संगदिल सनम हो तुम!

माना कि ज़रा सी की हमने गुस्ताख़ी,
पर जुर्माना वफ़ा-ए-ज़ीस्त,
ए पत्थर के सनम?

मेरी मासूम ग़लती और आपके ख़ौफ़नाक ज़लज़ले
अपनी नादानियत से लिपटकर काँप रहा हूँ मैं

हुई हमारी ज़रा सी चूक,
आई तुम्हारी सज़ा-ए-दुख
ए संगदिल सनम,
गई हमारी पशेमनी झुक

वफ़ा से लब्रेज़ मेरा जनम,
दया से परहेज़ मेरे सनम,
ज़रा सी चूक जाने अनजाने और,
सज़ा हैरत अंगेज़, फूटे करम!

मेरी महीन सी ग़लती और
सर कलम करने पर
उतर आते हैं वह,
उनकी हर ख़ता
महज़ एक अन्दाज़ है

- मुश्ताक़ अली ख़ाँ बाबी

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